भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति है। इसके साथ की अन्य संस्कृतियाँ या सभ्यताएँ चाहे वह यूनानी सभ्यता हो या मिस्री सभ्यता, आज अपने मूल स्वरूप में प्राप्त नहीं हैं। उनके स्वरूप का आकलन पुरातात्विक अवशेषों या लिखित अभिलेखों से ही हो पाता है। किंतु भारतीय संस्कृति में अविच्छिन्नता है, इसका कारण है कल्पना और यथार्थ का लगभग सरूप आदर्श प्रस्तुत कर, समाज का व्यवस्थापन तथा उसको उदात्त लक्ष्य की ओर प्रेरित करना। भारतीयता की इस शाश्वत विकास-यात्रा का रहस्य, मानव के आचार-व्यवहार का यथासंभव सीमा तक सुव्यवस्थापन, तर्क एवं श्रद्धा का समन्वय कर, संतुलित और सोद्देश्य जीवन-प्रणाली की स्थापना में है। भारतीयता एक सनातन यात्रा है, एक अमृत पंथ है, जो अनादि से अनंत तक विस्तृत है। भारत की आत्मा या भारतीयता को मात्र इतिहास के दिशा-संदर्भों में नहीं समझा जा सकता, क्योंकि भारतीय संस्कृति का इतिहास घटनाओं और तथ्यों का पुंज मात्र नहीं है। प्रत्येक घटना, प्रत्येक काल का इतिहास एक मूल्यदृष्टि का सृजन करता है जो देशानुकूल व्यावहारिक परिवर्तनों के साथ ही सत्य की खोज एवं उसकी प्राप्ति के आग्रह से युक्त हो। सर्वतोभावेन लोकमंगल के लिए प्रयासरत समष्टि जीवन का मूल्याधिष्ठिति स्वरूप प्रस्तुत करता है। भारतीय संस्कृति एवं परंपरा को इन संदर्भों में ही समझा जा सकता है।
संस्कृति की अवधारणा
संस्कृति अपने कलेवर में जीवनविधा तथा विचारविधा के समस्त आयामों जैसे व्यक्ति से व्यक्ति का संबंध, धर्म, कला, साहित्य, विश्राम एवं मनोरंजन की विधि, समाज का व्यवस्थापन, जीवनमूल्य इत्यादि से व्यक्त होने वाली समष्टिगत प्रकृति को समाविष्ट करती है। अतः इसकी कोई सरल परिभाषा संभव नहीं है। किंतु यह एक अवधारणात्मक तथ्य है जो ऐतिहासिक विकास में किसी भूमि पर बसने वाले जनसमूह की विशिष्टता को व्यावर्तित कर, उसे अन्य भूमि के जन से पृथक करती है। इसलिए उसको किसी भूमि पर लंबे समय से निवास कर रहे जनसमूह के चिति के रूप में समझा जा सकता है, संस्कृति कहा जा सकता है।
इस स्पष्टीकरण की भी अपनी सीमा है। व्यक्ति से अतिरिक्त समाज का अस्तित्व नहीं होता, अतः व्यक्तियों से पृथक समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। इस समस्या का पश्चिम की तर्कणा-पद्धति से कोई उत्तर प्राप्त नहीं हो सकता। शायद यही कारण रहा होगा कि भारतीय वाड्.मय में समाज की उत्पत्ति को तर्क से सिद्ध करने की चिंता न करके यह मान लिया गया है कि यह विश्व तथा समाज अनादि है और इसी सामाजिक एवं सांकेतिक विश्व में मनुष्य अपने मौलिक संस्कार अर्जित करना है और उसे चिरकाल से एक सनातन आदर्श व्यवस्था का मौलिक अनुकरण समझा जाता है। 1
अर्थात संस्कृति किसी समाज के मानस पर पड़ने वाले प्रभावों की ऐसी प्रवृत्ति की द्योतक है, जो विशेषतः उसकी अपनी होती है और पुनः उसके समस्त इतिहास में उसके भावों, उद्वेगों, विचार, वाणी एवं कर्म का संयुक्त तथा संचित प्रभाव होती है। संस्कृति विशिष्ट आत्मचेतना है, जिसके सामाजिक अनुभव का विश्लेषण कर, संकल्पनाओं, प्रतीकों और मूल्यों, दृष्टिकोणों तथा मनोवृत्तियों के रूप में ढाला जाता है।
इस विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि संस्कृति समष्टिगत समान अनुभव से उत्पन्न होती है। एक ही जलवायु में पले, एक ही प्रकार के पर्वतों, नदियों, झरनों तथा सागर को देखने वाले एक ही प्रकार के सामाजिक, आर्थिक अनुभव एवं सुख-दुख को भोगने वाले, एक ही प्रकार की ऐतिहासिक परंपरा का वहन करने वाले, समान पूर्वजों की संतान समझने वाले ऐसे, समूह को एक संस्कृति वाला कहते हैं, जो इन सबके साथ समान रूप से मानापमान का अनुभव करे।
भारतीय संस्कृति
यह स्पष्ट हो चुका है कि संस्कृति उस दृष्टिकोण को कहते हैं जिससे कोई समुदाय विशेष जीवन की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करता है और जीवन लक्ष्य को निर्धारित करता है। अतः भारतीय संस्कृति के स्वरूप को समझने के लिए उसकी संकल्पना, प्रतीक तथा मूल्यों एवं मनोवृत्तियों को विश्लेषित कर समझना आवश्यक है।
भारतीय संस्कृति शब्द से एक विशिष्ट भू-सांस्कृतिक क्षेत्र का बोध होता है। अर्थात भारत नामक वह भू-भाग जो इतिहास के प्रारंभ के साथ, पूर्वोक्त विशिष्टताओं से युक्त है। भारत-भूमि पर रहने वाले जनसमूह ने इतिहास के प्रारंभ से वर्तमान तक बहुत कुछ समान अनुभव अर्जित किए हैं इन अनुभवों से जिन संस्कारों का निर्माण हुआ है, जो वैचारिक दृष्टिकोण विकसित हुआ है, उन सबका द्योतन संस्कृति में होता है। इस संस्कृति की अभिव्यक्ति धर्म, वाड्.मय, विज्ञान, तकनीक, कला, राज-व्यवस्था सभी में स्पष्ट रूप से होती है। लौकिक एवं पारलौकिक स्तर पर, व्यक्ति एवं समष्टि स्तर पर, इस विशिष्टता का पूरी स्पष्टता के साथ अनुभव किया जा सकता है।
श्री अरविंद ने संस्कृति के वैशिष्ट्य को रेखांकित करते हुए कहा है कि - ज्ञान, विज्ञान, कला, चिंतन और नैतिकता, दर्शन, धर्म ये मनुष्य के वास्तविक व्यापार हैं और उसी से संस्कृति रूप ग्रहण करती है। इसे भारतीय संस्कृति के संदर्भ में देखना होगा।
भारतीय संस्कृति का वैशिष्ट्य उसकी परिष्कारवादी विधि में है। यह एक ऐसी सामूहिक प्रणाली है, जो प्रकृति-प्रदत्त पदार्थों के निरंतर संस्कारपूर्वक उसे सर्वश्रेष्ठ रूप में प्राप्त करने का प्रयास करती है। इस सर्वश्रेष्ठता की पूर्णता एक ऐसे अखंड बोध की प्राप्ति है, जिसमें जगत की समस्त वस्तुएँ अंगांगी भावपूर्वक एक ही सत्ता के विविध अवयवों के रूप में प्रतिस्थापित हो जाती हैं। परिणामतः मनुष्य और उसके समस्त व्यापार एक-दूसरे के पूरक बनकर, अपनी सार्थकता प्राप्त करते हैं। भौतिक, आध्यात्मिक एवं नैतिक, समस्त आयाम एक-दूसरे के अविरोधपूर्वक सामंजस्य की प्राप्ति के लिए अपने व्यापारों को संस्कारित करने का जो प्रयास करते हैं, उसी का नाम भारतीय संस्कृति है। यह काल की ऐसी सनातन यात्रा है, जिसमें इतिहास की इयत्ता उसके मूल्यबोध में समाहित है। जिसमें घटना की अपेक्षा घटना से उत्पन्न मूल्यबोध अधिक महत्वपूर्ण है। अर्थात घटना-प्रधान काल के इतिहास के स्थान पर घटना से प्राप्त होने वाली शिक्षा या उपदेश अधिक महत्वपूर्ण है।
प्रथमतः यह बात ध्यान में रखना आवश्यक है कि भारतीय संस्कृति अत्यंत आशावादी जीवन-पद्धति है इसमें जीवन का उद्देश्य ही आनंद की प्राप्ति है। तैत्तिरीयोपनिषद् में स्पष्ट कहा गया है, कि ''कोई क्यों जीवित रहता, कोई क्यों साँस भी लेता यदि आनंद न होता'' अर्थात जीवन पर्व है, इसको अनुष्ठित करने के लिए, ठीक से जीवन जीने के लिए जो दत्त जीवन है, जिसमें मनुष्य एवं पशु के बीच कोई अंतर नहीं है अर्थात मौलिक आवश्यकताओं की दृष्टि से पशु एवं मनुष्य दोनों समान है, जिसमें सभी भोजन करते हैं, भय होता है और यौन-सुख की अभिलाषा होती है। इस समानता को तोड़कर मनुष्य को श्रेष्ठ बनाने के लिए संस्कारों की आवश्यकता होती है। यही संस्कार की प्रणाली धर्म के नाम से भी जानी जाती है। संस्कारित होना तथा संस्कारित करने की परंपरा को आगे बढ़ाना, सब तक पहुँचाना ही संस्कृति है।
इस व्यापक दृष्टिकोण पर विचार किया जाए तो भारतीय संस्कृति जीवन के समस्त आयामों में विस्तार प्राप्त करने वाली प्रणाली या जीवन-विधि है। यह किसी निश्चित विशिष्टता से युक्त होने तथा धरती की शेष संस्कृतियों से अलग होने के कारण महत्वपूर्ण नहीं है। अपितु इसलिए महत्वपूर्ण है कि इस संस्कृति में युगानुकूल, देशानुकूल परिवर्तनों को स्वीकार करते हुए अपनी नित्य जीवन-दृष्टि या मूल्य-प्रणाली को संरक्षित करने की क्षमता है। इसीलिए भारतीय संस्कृति विश्ववारा संस्कृति है। काल के थपेड़ों के साथ इसमें क्षरण तो संभव है, किंतु यह मर नहीं सकती, अमर संस्कृति है। क्योंकि यहाँ जीवन की अखंडता और संपूर्णता पर बार-बार बल दिया गया है, यहाँ मान्यता है कि न तो राज्य अपेक्षित है न ही मोक्ष अभीष्ट है। अपेक्षा है, कामना है, तो मात्र इतनी कि कोई दुखतप्त न रहे। अर्थात दुखी लोगों के कल्याण के लिए सब कुछ, यहाँ तक कि अपना जीवन भी समर्पित करने की कामना ही, प्रतिक्षण संस्कार के परिष्कार का आदर्श है।
इसको अत्यंत संतुलित शब्दों में प्रस्तुत करते हुए प्रसिद्ध इतिहासकार एवं संस्कृतिविद् प्रो. राधाकमल मुखर्जी कहते हैं कि - ''व्यक्ति का लक्ष्य है प्रवीणता की प्राप्ति तथा समाज का लक्ष्य है संस्कृति की उपलब्धि, दोनों लक्ष्य एक ही हैं, पूर्ण संतुलित एवं व्यावहारिक हैं।'' यहाँ प्रवीणता जीवन में सद्गुणों का विकास ही है।
भारतीय संस्कृति के मानदंड
विशाल एवं उदात्त जीवन-पद्धति होने के नाते भारतीय संस्कृति को एक विशेष प्रकार की अमूर्तता प्राप्त हो जाती है। जगत में मनुष्य का कोई व्यापार या व्यवहार नितांत एकाकी एवं अन्य से नितांत अलग क्रिया नहीं है। किंतु इस मान्यता के कारण अनेक दृष्टियाँ या मत संभव हैं, यद्यपि यह भी भारतीय संस्कृति का एक वैशिष्ट्य ही है कि इसमें मनुष्य को अपनी दृष्टि के निर्माण का व्यापक स्वातंत्र्य प्राप्त है। किंतु सामान्य बोध की दृष्टि से भारतीय संस्कृति के कुछ अवधारणात्मक संप्रत्ययों को अवश्य गिनाया जा सकता है। जो समग्र भारतीय संस्कृति के मानदंड के रूप में समझे जाएँ और भारतीय दृष्टि से सुसंगत मानव व्यवहार में इसका प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सके। इस दृष्टि से कुछ प्रमुख अवधारणाएँ निम्नवत हैं -
1. जीवन की पूर्णता एवं इस जीवन की नश्वरता का बोध
2. कर्म के प्रति जोर तथा नैतिक सिद्धांतों की सर्वव्यापिता
3. मानव मात्र की एकात्मता में विश्वास
4. उत्तरदायित्व की पवित्रता
5. करुणा का आदर्श
6. मनुष्य की सर्वविध उन्नति पर जोर
7. भू-सांस्कृतिक राष्ट्रीयता।
इन पर अलग-अलग विचार किया जाए तो ये विशिष्टताएँ सार्वभौम एवं मानव मात्र के लिए अपेक्षित हैं, वरेण्य हैं, ऐसा प्रतिपादित किया जा सकता है। यद्यपि ऐसा प्रतिपादन सर्वथा संभव है और अपेक्षित भी है। किंतु भारतीय संस्कृति के वैशिष्ट्य प्रतिपादक मानदंड के रूप में इसे इसलिए प्रस्तुत करना आवश्यक है कि भारतीय संस्कृति ही एकमात्र ऐसी संस्कृति है, जिसमें ये सभी एक साथ तथा अत्यंत प्राचीन ऐतिहासिक परंपरा में प्राप्त होते हैं।
जीवन की पूर्णता एवं इस जीवन का नश्वरताबोध
भारतीय संस्कृति का सर्वाधिक विचित्र पक्ष मानव जीवन के प्रति उसका दृष्टिकोण है। एक तरफ जीवन को नश्वर तथा मनुष्य को मरणधर्मा मानकर जीवनोत्तर व्यापारों के लिए व्यापक अवकाश प्रदान किया गया है। वहीं दूसरी ओर इसकी सर्वविध रक्षा के प्रयत्न का उपदेश दिया गया है। कठोपनिषद् में यम और नचिकेता के विख्यात संवाद में जीवन और मृत्यु के रहस्यों का अत्यंत गंभीर विवेचन प्राप्त होता है। यह विवेचन भारतीय संस्कृति का जीवन के प्रति एक समग्र दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। जीवन अखंड है, जीवन निरंतर है, यह भारतीय संस्कृति का अत्यंत विशिष्ट प्रतिपाद्य है।2 अर्थात मृत्यु सत्य है किंतु यह समस्त जीवन की समाप्ति नहीं है। बल्कि इस जीवन से दूसरे जीवन की ओर होने वाली यात्रा मात्र है।
यह जीवन अर्थात शरीर में बँधा हुआ वर्तमान जीवन, जो शरीर के नष्ट होने के साथ समाप्त हो जाने वाला है। शरीर की दृष्टि से नश्वर है। इसका उद्देश्य और लक्ष्य कर्म-साधना मात्र है इसलिए इस नश्वर जीवन को अत्यंत सचेत रूप से कर्मयज्ञ में समिधा (हवन सामग्री आदि) के रूप में झोंक देने की साधना ही जीवनयज्ञ है। किंतु यज्ञ बिना दक्षिणा के पूरा नहीं होता इसलिए शरीर में बँधे जीवन की आहुति देने के बाद भी तप, दान, आर्जव, अहिंसा और सत्य को बचाकर जीवन की निरंतरता में प्रवाहित करना, जीवनयज्ञ की दक्षिणा है। इसके लिए शरीर में बँधा जीवन आवश्यक है, साधन है। अर्थात मनुष्य का मरणधर्मा होना सत्य है, किंतु मरणधर्मी मनुष्य को भी मानव-कर्तव्यों की पूर्ति के लिए शरीर को साधन के रूप में स्वीकार करना होगा। इसलिए शरीर को भी साधन मूल्य के रूप में ग्रहण करना पड़ता है। अनिवार्य रूप से ग्रहण करना पड़ता है।
यद्यपि भारत को इस जीवन की नश्वरता का ज्ञान प्रारंभ में ही था। किंतु यही नश्वर जीवन, इस नश्वरता के बोध और भय से मुक्ति का माध्यम भी है। इसलिए इसको पर्याप्त महत्व दिया गया है - इस जीवन की सर्वाधिक मूल्यवत्ता है क्योंकि यहीं से यह प्रयास और प्रार्थना की जा सकती है कि - मुझे असत् से सत् की ओर ले चलो, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो, मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो।3
इस प्रकार इस जीवन को मृत्यु-दोष से युक्त मानने के बाद भी इसे त्यागने और उपेक्षित करने की वृत्ति का भारतीय संस्कृति धारा में स्पष्टतः विरोध है। जैसा कि ईशावास्योपनिषद् में कहा गया है कि ''केवल कर्म करते हुए ही एक सौ वर्ष की आयु तक मनुष्य को जीवित रहने की आशा करती चाहिए।"4
यह दृष्टि जीवन की पूर्णता के प्रतिपादन का आधार है। कर्म करना है और कर्म के लिए शरीर साधन आवश्यक है। इस हेतु शरीर की किसी विधि रक्षा करना भी परम धर्म है जैसा कि महाभारत में भीष्म ने युधिष्ठिर को उपदेश देते हुए कहा है कि - ''जीवन जिस प्रकार से सुरक्षित रहे, उस प्रकार का प्रयत्न बिना किसी अवहेलना के करना चाहिए। मरने से जीवित रहना श्रेष्ठ है, क्योंकि जीवित पुरुष पुनः धर्म का आचरण कर सकता है।"5
यह जीवन धर्म के आचरण का आधार है। धर्म भी मात्र आध्यात्मिकता नहीं है। इसकी पूर्णता तभी है, जब मानव जीवन के सभी पक्षों, भौतिक, नैतिक भावात्मक तथा आध्यात्मिक का सम्यक विवेचन एवं उनकी पूर्ति का प्रयास हो।
इसके लिए भारत में कर्मवादी दृष्टि अत्यंत प्रखरता से प्रतिपादित की गई। कर्ममीमांसा का एक महत्वपूर्ण निकाय ही विकसित हुआ। गीता में श्रीकृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं कि बिना कर्म के किसी भी व्यक्ति का एक क्षण भी स्थित रहना संभव नहीं है।6
देश या भूमि पर विचार करते हुए भी भारतवर्ष को कर्मक्षेत्र के रूप में प्रतिपादित किया गया है। यहाँ यह स्पष्ट मान्यता रही है और है कि इस लोक में विश्राम नहीं है यहाँ तो जीवन भर कर्म करते रहना चाहिए। कर्म ही संसारचक्र की गति को जारी रखता है और प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ओर से पूरा प्रयत्न कर इसकी गति को जारी रखना चाहिए।
कर्म के प्रति यह जोर कर्म-परिणाम की दृष्टि से नैतिकता के आधारभूत सिद्धांतों की अपेक्षा करता है। भारतीय संस्कृति इस दृष्टि से भी विशिष्ट है कि यहाँ कर्म या मानवाचरण को नियमित करने के लिए नैतिक उपदेशों की अपेक्षा नियामक सिद्धांतों का प्रवर्तन दुनिया में प्रथम बार किया गया। यद्यपि नैतिक आचरण का वर्णन भी दुनिया की किसी भी अन्य संस्कृति से अधिक विपुल और व्यापक है। किंतु सामान्य नियामक सिद्धांतों की प्रस्तुति विश्व में प्रथम बार की गई है। अर्थात हमें क्या करना चाहिए या मनुष्य के लिए क्या-क्या करणीय है अथवा क्या अकरणीय? इसकी लंबी सूची गिनाने की अपेक्षा किस प्रकार कर्म करने चाहिए कि वे नैतिक कर्म हों, यह प्रमुख प्रतिपाद्य है। यह इस समस्या से जुड़ा है कि किस प्रकार कर्म से उत्पन्न होने वाले परिणाम-बंधनों से मुक्त रह सकें।
इस पर गहराई से विचार किया जाए, तो यह ध्यान में आएगा कि प्रकृति-नियंत्रित अथवा ईश्वर-नियंत्रित कर्म सिद्धांत की अपेक्षा कर्म स्वातंत्र्य के सिद्धांत का प्रतिपादन तथा उसे धर्माचरण का भाग बनाना भारतीय संस्कृति का वैशिष्ट्य है। इसको नीति दर्शन की तुला पर मूल्यांकित करते हुए डॉ. एस. राधाकृष्णन कहते हैं कि -
कर्म केवल अवस्था मात्र है यह नियति नहीं है। कर्म की सिद्धि के लिए पाँच अवयवों का होना आवश्यक है। ये हैं अधिष्ठान, अथवा आधार, या ऐसा कोई केंद्र जहाँ से कर्म किया जा सके, कर्ता अर्थात कर्म करने वाला, करण अर्थात प्रकृति का साधन, चेष्टा अर्थात प्रयत्न या पुरुषार्थ और दैव अथवा भाग्य। 8
इस विवेचन से स्पष्ट है कि नियति या भाग्य मनुष्य के कर्म का एक आयाम या अवयव मात्र है, उसके कर्म को नियंत्रित करने वाली अंतिम सत्ता नहीं। इसलिए मनुष्य को कर्म करने तथा कर्मों का चयन करने की पर्याप्त स्वतंत्रता प्राप्त है।
इस प्रकार किसी भी प्रकार के भाग्यवाद का यहाँ स्पष्ट निषेध भी परिलक्षित होता है।
कर्म के इस स्वातंत्र्य और इसके नियामक स्वरूप का वर्णन करते हुए डॉ. राधाकृष्णन कहते हैं कि -
जिससे हमारा ईश्वर, मनुष्य और प्रकृति के साथ यथार्थ एक्य अभिव्यक्त हो, वही शुद्ध आचरण है और अशुद्ध आचरण वह है जो यथार्थता के इस अनिवार्य संगठन के प्रतिपादन में असमर्थ है। विश्व का एकत्व आधारभूत सिद्धांत है। जिससे पूर्णता की प्रगति हो सके, वही पुण्य है और जिसकी इससे संगति न बैठे वह पाप है।9
कर्म के इस सिद्धांत के प्रति मुक्त एवं बद्धपुरुष तथा ईश्वर सभी उत्तरदायी हैं। मुक्तपुरुष, पूर्णता को प्राप्त पुरुष को भी लोकसंग्रह की भावना से कार्य करना चाहिए और संसार मात्र के कल्याण को अपना लक्ष्य बनाना चाहिए। श्रमण धारा में भी बोधिसत्व का यही आदर्श है कि जब तक पृथ्वी पर एक भी व्यक्ति कलि के कलुष से दुखतप्त है, उसे निर्वाण नहीं चाहिए।
इस नैतिकता के नियामक सिद्धांत के पीछे ऋत् की अत्यंत प्राचीन व्यवस्था है। नैतिक पूर्णता एवं कर्म सिद्धांत के बीज इसी में निहित हैं। जो आदमी जैसा काम करता है और जिस प्रकार का जीवन बिताता है, उसी के अनुसार वह बन जाता है। इसको व्याख्यायित करते हुए कहा गया है कि -
मनुष्य स्वयं इच्छानुसार अपना निर्माण करता है और उसी की इच्छा के अनुसार उसका निश्चय होता है तथा अपने निश्चय के अनुसार वह कार्य करता है, और उसके कार्यों के अनुसार उसका प्रारब्ध होता है।10
यह संकल्प एवं कर्म की स्वतंत्रता का वो उच्चतम आदर्श है, जो अन्य किसी ऐतिहासिक संस्कृति में उपलब्ध नहीं होता तथा वर्तमान सांस्कृतिक समूहों में भी कठिनाई से प्राप्त होता है।
एकात्मवाद
लोकसंग्रह का भाव या कर्म की पूरी स्वतंत्रता के बाद भी अनिवार्य रूप से श्रेष्ठ कर्म का ही चुनाव एक ऐसी लोकोत्तर मान्यता पर प्रतिष्ठित है, जिसे एकात्मभाव या सर्वात्मभाव का सिद्धांत कहा जा सकता है। भारतीय संस्कृति की चिति, उसके द्वारा प्रस्तुत सब में एक ही आत्मा के होने की मान्यता है। इसका स्पष्ट रूप उपनिषदों में देखा जा सकता है। ईशावास्योपनिषद् के प्रथम मंत्र में ही कहा गया है कि इस संसार में जो कुछ है वह सब ईश्वर का प्रकाश है। अर्थात सभी सांसारिक पदार्थ एक ही अद्वैत विश्वातीत, किंतु सर्वव्यापी तत्व की अभिव्यक्ति हैं। वही तुरीय तत्व समस्त ब्रह्मांड के साथ एकाकार होकर, अविद्या और मोह के बल पर सुख की स्थूल वस्तुओं का अनुभव करता है। इस महनीय सिद्धांत के आधार पर ही भारतीय संस्कृति में मानव मात्र को ज्ञान प्राप्त करने तथा सर्वोच्च लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करने का अधिकार दिया गया है। यह अद्वैतवाद में अपनी परिणति प्राप्त करता है। जो समस्त विश्व के विभेदों में एक परम सत् और उस परम सत् में अनंत विश्व का भेद खोजने की दृष्टि है।11
उत्तरदायित्व की पवित्रता
जिस प्रकार के कर्मवाद की प्रतिष्ठा भारतीय संस्कृति में की गई है और कर्म को मुक्ति के साधन के रूप में स्वीकार किया गया है। उससे यह संभावना बनती है कि व्यक्ति समस्त कर्मों को अपनी व्यक्तिगत मुक्ति के लिए करेगा। किंतु यह संकट भारतीय जीवन-पद्धति में खड़ा नहीं होता, क्योंकि यहाँ उन सभी संभावनाओं को समाप्त करते हुए दायित्व के भाव की सहज प्रतिष्ठा के लिए आनृण्य (ऋण-मुक्त होना) व्यवस्था का प्रतिपादन किया गया है। यह चिंतन अपने ढंग का अद्वितीय है और विश्व की किसी अन्य संस्कृति में प्राप्त नहीं होता। आनृण्य व्यवस्था व्यक्ति को माता, पिता के प्रति देतवाओं के प्रति कृतज्ञता के भाव को उत्पन्न करते हुए उनसे जो कुछ प्राप्त हुआ उससे उऋण होने की प्रस्तावना प्रस्तुत करती है। इस व्यवस्था की विशिष्टता यह है कि जिससे ऋण प्राप्त है। उसे नहीं लौटाना है अपितु उसके लिए अन्य को लौटाना है। यह समष्टि के प्रति कृतज्ञता का भाव है। इस व्यवस्था के फलस्वरूप मनुष्य अपने कर्तव्यों की पूर्ति के लिए उत्तरदायी बनता है और अपने उत्तरदायित्व की पूर्ति में अक्षम होने पर वह पाप का भाजन तो होता ही है, लोक-निंदा का भी पात्र बनता है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को, जो गृहस्थ है जिसके भरण-पोषण की व्यवस्था सुनिश्चित हो गई है, कुछ ऋणों को पूरा करने का उत्तरदायी ठहराया गया है। इसे अत्यंत अनिवार्य कर्तव्य के रूप में प्रतिपादित करते हुए कहा गया है, जो गृहस्थ है अर्थात जिसका उत्पादन व्यवस्था में सहकार है, जिसने समाज से अपना प्राप्तव्य प्राप्त कर लिया है। उसका समाज के प्रति यह दायित्व है कि वह उसके भरण-पोषण एवं अभ्युन्नति के लिए प्रयास करे। इस प्रयास को यज्ञ के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है। प्रत्येक गृहस्थ की यह जिम्मेदारी है कि वह अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन में तीन महत्वपूर्ण यज्ञों को स्थान दे। ये यज्ञ हैं, ब्रह्मयज्ञ अर्थात अध्यापन, इस अनादि विश्व में अनेकों प्रयास से जो ज्ञान का विकास हुआ है और व्यक्ति तक पहुँचा है, उसे आगे संक्रांत करना, विकसित करना और अगली पीढ़ी तक पहुँचाना प्रत्येक का कर्तव्य है। जो इस कर्तव्य का पालन नहीं करता, वह ज्ञान का द्रोही है, ब्रह्मदोषी है। इसी प्रकार पितृयज्ञ अर्थात तर्पण और प्रजापालन अर्थात अतिथि-सेवा, मानव-सेवा, यह मानव का परम उत्तरदायित्व है। प्रतिदिन, प्रत्येक व्यक्ति भोजन के पूर्व एक निश्चित समय सीमा तक, घर के बाहर खड़ा होकर, किसी अतिथि की प्रतीक्षा अवश्य करे, जिसे भोजन कराकर, वह अपने नृयज्ञ की पूर्ति की दिशा में, एक सार्थक प्रयास को संपन्न कर सके। मनुष्य को इस प्रकार की उदात्त भावना से प्रेरित करने की व्यवस्था मात्र भारतीय संस्कृति में ही प्राप्त होती है। अतिथि का स्वागत परम कर्तव्य है, और जो मनुष्य अतिथि का स्वागत नहीं करता, वह घोर एवं गंभीर पाप का भागी होता है। इसका विस्तृत वर्णन करते हुए मार्कण्डेय पुराण में कहा गया है कि जो गृहस्थ अतिथि का सत्कार नहीं करता वह स्वयं केवल पाप का भक्षण करता है।12 यह व्यवस्था मानव के भाव पक्ष के उदात्तीकरण का अद्भुत प्रयास है। भारतीय परंपरा इस व्यवस्था के माध्यम से यात्रियों एवं यतियों के भोजनावास इत्यादि की व्यवस्था, न केवल व्यवस्था अपितु सम्मानपूर्वक व्यवस्था का प्रबंध करती है।
भारतीय संस्कृति में प्रत्येक व्यक्ति को देवता, गुरु तथा माता-पिता के ऋण के माध्यम से अन्यों के प्रति उत्तरदायी होने की जो व्यवस्था की गई है, वह उत्तरदायित्व की पवित्र भावभूमि पर मानव कर्म को स्थापित करने का प्रयास है। जिसमें कोई छोटा नहीं है, जिसमें कोई अनुत्तरदायी नहीं, सभी विशिष्ट मानवीय गरिमा से युक्त हैं, प्रत्येक मनुष्य पूर्वजों से प्राप्त भौतिक, आध्यात्मिक एवं अन्य उपलब्धियों को अपनी उत्तरवर्ती पीढ़ी को देने के लिए जिम्मेदार है। इस प्रकार की व्यवस्था के कारण सामाजिक अनुबंध और समाज के प्रति व्यक्ति का दायित्व उसका सहज भाव हो जाता है। इसके लिए किसी बाध्यतामूलक नीति की आवश्यकता नहीं होती।
करुणा का आदर्श
भारतीय संस्कृति की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता है करुणा की भावना। ऐसी भावना जो करुणा को विश्वबंधुत्व के उत्कर्ष तक ले जाती है। मानव पीड़ा के प्रति असीम व निर्मल करुणापूर्ण चिंता, सार्वभौम करुणा एवं सद्भावना हमारी अनादि विशिष्टता है। सामान्यजन ने विशिष्ट करुणा, धैर्य एवं कृपा से संयुक्त बुद्ध एवं महावीर जैसे युग-पुरुषों को भगवान के उच्चासन पर बैठाकर पूजा है। अनेक स्मारकों एवं प्रतीकों में आज भी वैश्विक करुणा के ये मूर्तिमान स्वरूप पूरे देश में पाए जाते हैं।
करुणा की यह भावना मनुष्य के दैनिक जीवन व्यवहार का ही हिस्सा नहीं रही। अपितु उससे आगे बढ़कर यह कला एवं अन्य भावनात्मक क्रियाओं का स्थायी भाव बन गई। करुणा को केंद्रित करके दुनिया में कहीं भी इतनी रचनाओं की, इतने विस्तृत क्षेत्रों में प्राप्ति नहीं होती। जहाँ मिस्री सभ्यता के कलातथ्य मिस्र के वैभव, राजा के प्रताप एवं ऐश्वर्य का प्रतिबिंबन करते हैं, वहीं ग्रीक व रोमन सभ्यता के कलावशेष नागरिक जीवन की जटिलता एवं श्रृंगार एवं विलास से युक्त नागर-जीवन की झलक प्रस्तुत करते हैं। इन दोनों ही सभ्यताओं के विपरीत भारतीय संस्कृति में करुणा की प्रतिष्ठा, शिव, बुद्ध, महावीर, पशुपति, प्रजापति इत्यादि की प्रतिमाओं में अपनी रचनात्मक भाव-भूमि से सहज ही होती है और सकल विश्व के दुख से कातर और उसके परिहार के लिए चिंतित मानव के उदात्त स्वरूप का दर्शन करती है।
हमारी संस्कृति में दूसरों के लिए अपने जीवन का त्याग करने की जो महनीय प्रवृत्ति पाई जाती है, वह किसी भी अन्य संस्कृति के लिए वरेण्य है। करुणा ही इसका आधार है। करुणा के भाव से अनासक्ति का उदय होता है। करुणा ने धर्म एवं कला का ऐसा गठबंधन किया कि कला समस्त भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों की अभिव्यक्ति का सबल साधन बनकर उभरी। सभी कलाकृतियों में, चाहे वह किसी भी पंथ से अनुप्राणित कृति हो, वही प्रेरणा, वही साधना, वही तन्मयता दिखाई देती है, जिसने पृथ्वी पर स्वर्ग निर्माण किया है।
मनुष्य की सर्वाविध उन्नति पर जोर
करुणा के विस्तार का स्वाभाविक परिणाम था कि मनुष्य की सर्वाविध उन्नति के प्रयास हुए। परिणामतः भारतीय संस्कृति का जोर मात्र मनुष्य के आध्यात्मिक और बौद्धिक जगत की संतुष्टि तक ही नहीं है, बल्कि उससे आगे तर्कशास्त्र, भाषाविज्ञान, आयुर्विज्ञान, ज्योतिषशास्त्र एवं अन्य विज्ञानों के विकास में भी पाया जाता है। अर्थात स्थापत्य से लेकर प्राणी-विज्ञान तक सभी स्थानों पर करुणा की दृष्टि और दुखकातर प्राणियों के दुखमोचन का प्रयास सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है।
जैसाकि चर्चा हो चुकी है, मनुष्य का कल्याण, उसकी उन्नति मात्र आध्यात्मिक या उपासना दृष्टि से संभव नहीं है। इसके लिए उसके अन्य पक्षों का भी विस्तार एवं विकास आवश्यक है। भारतीय संस्कृति में यह विस्तार अत्यंत प्रबलता एवं प्रखरता से प्राप्त होता है।
विज्ञान एवं तकनीक क्षेत्र में प्राप्त उपलब्धियाँ अत्यंत विस्मयकारी एवं गौरवशाली हैं। भारतीयों ने गणित एवं यंत्र-विद्या की नींव डाली। उन्होंने भूमि का मापन किया, वर्ष के विभाग किए, आकाश का मानचित्र बनाया, सौर-मंडल के परिभ्रमण चक्र का परिशीलन किया और ग्रहों-उपग्रहों की गति अत्यंत सूक्ष्म सीमा तक मूल्यांकन प्रस्तुत किया।
प्रकृति विज्ञान के क्षेत्र में भी पक्षियों, पशुओं, पेड़-पौधों और बीज आदि तक का अध्ययन किया। चिकित्सा-विज्ञान में भी ज्योतिष एवं अध्यात्म विद्या के समान भारतीय संस्कृति की प्रमुखता संदेह से परे है। आयुर्वेद एवं शल्य चिकित्सा के क्षेत्र में भारतीय उपलब्धियाँ आज भी कई दृष्टियों से दुनिया के आधुनिकतम ज्ञान-विज्ञान को चकित कर देने वाली हैं।
खगोल-विद्या के क्षेत्र में तो मात्र एक उद्धरण ही भारतीय सांस्कृतिक धारा की मनीषा की श्रेष्ठता को सिद्ध कर देने के लिए पर्याप्त है कि कोपरनिकस से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व (न्यूनतम) लिखे गए ग्रंथ ऐतरेय ब्राह्मण में लिखा गया है कि -
सूर्य न तो कभी अस्त होता है न तो कभी उदय, जब लोग सोचते हैं कि सूर्य अस्त हो रहा है, तब वह केवल एक परिवर्तन में आता है। दिन के अंत में नीचे के हिस्से में रात हो जाती है और दूसरी ओर दिन हो जाता है, फिर जब लोग सोचते हैं कि सूर्य उदित हो रहा है, तब यह केवल रात्रि के अंत में पहुँचकर केवल एक परिवर्तन में आ रहा होता है और नीचे के हिस्से में दिन और दूसरे हिस्से में रात कर देता है।13
भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में भी भारत की उपलब्धियाँ अत्यंत आह्लादकारी हैं। इसी प्रकार समाज-विज्ञान के समस्त आयामों का सम्यक विवेचन राजशास्त्र, अर्थशास्त्र एवं धर्मशास्त्रों में पाया जाता है। लोकतंत्र एवं लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा भारत में ही विश्व में सबसे पुरानी है। इतना ही नहीं सर्वपंथ-समभाव की अवधारणा को भी राज्य के नीतिनियामक तत्व के रूप में स्वीकार करने के प्राचीनतम उदाहरण भारत में ही प्राप्त होते हैं। यदि राजनीति के क्षेत्र में अंग्रेजों द्वारा लिखे कल्पित इतिहास से प्रभावित होकर, वेदों एवं उपनिषदों के महान युग तथा महानतम शिक्षाओं को इस क्षेत्र में कल्पना भी मानें तो चंद्रगुप्त मौर्य और अशोक के शासन को तो यथार्थ स्वीकार करना ही पड़ेगा और पश्चिम में लोककल्याणकारी राज्य एवं सेकुलर राज्य की स्थापना से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व भारत में राज्य के लोककल्याणकारी स्वरूप एवं उसके सर्वपंथ-समभाव की दृष्टि से इनकार नहीं किया जा सकता।
चंद्रगुप्त जिस 'अर्थशास्त्र' को आधारित करके राज्य-व्यवस्था का संचालन करता था, उसमें स्पष्टतः स्वीकार किया गया है कि जनता के सुख एवं नैतिक जीवन का दायित्व राज्य पर है। 'अर्थशास्त्र' (प्रथम अधिकरण, अध्याय 18) में कौटिल्य लिखते हैं कि 'प्रजा का सुख ही राजा का सुख है तथा प्रजा का हित ही राजा का हित है। राजा का हित अपने आनंद में नहीं वरन प्रजा के आनंद में है।'
अशोक के शिलालेखों से भी यह बात स्पष्ट रूप से ध्वनित होती है। राज्य सभी के प्रति सहिष्णु हो तथा सभी के आचारों, विचारों एवं व्यवहारों का आदर करे, सबका सबके प्रति समत्व भाव बने तथा कानून के समक्ष सबकी समानता हो, इसका भारतीय राज्य-व्यवस्था में विशेष आदर रखा जाता था।
भू-सांस्कृतिक राष्ट्रीयता
भारतीय संस्कृति की सर्वाधिक महत्वपूर्ण अवधारणा उसकी भू-सांस्कृतिक राष्ट्रीयता है। इसको भारतीय संस्कृति के अत्यंत व्यावर्तक लक्षण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। पश्चिम की राज्य-राष्ट्र की अवधारणा के विपरीत भारत में प्राचीनतम काल से ही भू-सांस्कृतिक राष्ट्रीयता का सिद्धांत रहा है। यही कारण है कि अनेक प्रभुसत्ता-संपन्न राज्यों के होते हुए भी भारत-भूमि को एक राष्ट्र के रूप में सर्वत्र स्वीकृति मिली, जो कि "एक राष्ट्र एक जन" की मान्यता का प्रतिपादन करता है।
इस विशिष्टता को यूरोपीय इतिहास अथवा यूरोपीय इतिहास दृष्टि से भारतीय इतिहास का लेखन और मूल्यांकन करने के तर्कों से समझ पाना संभव नहीं है। युद्ध राजनीति और आर्थिक संघर्ष को भारतीय विकास का स्रोत मानकर हम भारत तथा भारतीय इतिहास की राष्ट्रीय दृष्टि को कथमपि नहीं समझ सकते।
स्वयं भारत शब्द भी एक भू-सांस्कृतिक अवधारणा को ही प्रस्तुत करता है। भारतीय संस्कृति में भूमि को माता माना गया है, एक भूमि पर रहने वाले समस्त जन उसके पुत्र हैं, भरत जो इस देश के पूर्वजों में श्रेष्ठतम हैं, उनके नाम पर इसे भारत कहा गया है। माता को ज्येष्ठ पुत्र के नाम से जोड़कर बुलाने की परंपरा भी इस भूमि पर प्राप्त होती है। दूसरा अर्थ यह भी प्राप्त होता है कि 'भा' यानि प्रकाश, 'रत' यानि लगा हुआ, अर्थात प्रकाश की प्राप्ति में लगे हुए लोगों का जो जन-भूमि संघात है वही भारत है।
राष्ट्र शब्द वैदिक काल से ही अपने मूल अर्थ में प्राप्त होता है। राष्ट्र एक सुघटित इकाई है, राज्य या किसी प्रकार की शासकीय सत्ता से इसका अर्थ संबंध रंच मात्र का भी नहीं है। माता भूमि, भारती वाक्, राष्ट्र इन वैदिक अवधारणाओं का पल्लवन ही भारत है। इस भारतवर्ष को एक यज्ञवेदी के रूप में प्रस्तुत किया गया है जो उत्तर की ओर ऊँची है, दक्षिण की ओर ढलुआ है। इसे बाणयुक्त चढ़ा हुआ धनुष भी कहा गया है। हिमालय का विस्तार उस धनुष का आधारदंड है और दक्षिणापथ खिंची हुई डोरी, जिसके बीच में बाण रखा हुआ है। कन्याकुमारी का अंतरीप उस बाण की नोंक है।
इस भू-सांस्कृतिक अवधारणा का वर्णन संपूर्ण भारतीय साहित्य में प्राप्त होता है। वेद जीवन की श्रेष्ठता को राष्ट्रीय संपन्नता की माँग में देखते हैं, तो पुराण भारतवर्ष का विहंगम मानचित्र खींचते हैं, पर्वतों एवं नदियों के माध्यम से समूचे भारत का विस्तृत वितान प्रस्तुत करते हैं। जीवन-पद्धति की दृष्टि से भी प्रातः उठकर, स्नान करते समय, उपासना के समय, सोते समय, नदियों, नगरों, महापुरुषों के स्मरण का एक ऐसा विशिष्ट विधान नियोजित होता है, जो किसी अन्य संस्कृति में दुर्लभ है।
पूरब के व्यक्ति को पश्चिम से, पश्चिम के व्यक्ति को पूरब से, उत्तर को दक्षिण से, दक्षिण को उत्तर से प्रतिदिन के व्यवहार में जोड़ने और सुदूर भारत को अपने नित्य के अनुभव का विषय बनाने की जो अनुपम विधि प्रस्तावित की गई है, वह उत्कृष्टतम है। यह भारत-भाव ही जीवन विधि है, भारत-भाव की प्रतिष्ठा मात्र, भारत के लिए नहीं है, वह तो तभी चरितार्थ होती है जब हम अपने दायित्वों को पूरा करते हुए सब में अपनी चेतना का दर्शन करते हुए, सबकी पीड़ा बाँटते हुए, समस्त सृष्टि के कल्याण के लिए आकुलता का जागरण करते हुए अपनी भारतीयता को प्रमाणित करें।
संदर्भ
1 . गोविंदचंद्र पांडेय, 1989, भारतीय परंपरा के मूल स्वर, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, द्वितीय संस्करण, पृ. 1; तथा ''ततः क्षरत्यक्षरं तद्विश्वमुपजीवति'' ऋग्वेद I.164.42।
2 . विद्यानिवास मिश्र, 1989, भारतीय परंपरा, म.प्र. हिंदी ग्रंथ अकादमी, पृ. 35
3 . असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृतयोर्मा अमृतं गमय। - बृहदारण्यकोपनिषद् 1.3.27
4 . ईशावास्योपनिषद् 2
5 . यथा यथैव जीवेद्धि तत् कर्त्तव्यमहेलया।
जीवतं मरणाच्छ्रेयो जीवन धर्ममवाप्नुयात्।। - महाभारत, शांतिपर्व 141.65
6 . गीता XVIII.11
7 . तत्रापि भारतमेव वर्ष कर्मक्षेत्र - श्रीमद्भागवत पुराण V.17.11
तथा - कर्म भूमिरियं स्वर्गं अपवर्गं च गच्छताम् - विष्णु पुराण 2.3.2
8 . एस. राधाकृष्णन्, 1995, भारतीय दर्शन, भाग एक, राजपाल एंड सन्स, नई दिल्ली, पृ. 47
9 . तदैव, पृ. 464
10 . बृहदारण्यकोपनिषद्
11 . इस संबंध में ऋग्वेद के 'नासदीय सूक्त' में अत्यंत प्रकृष्ट वर्णन प्राप्त होता है।
12. मार्कण्डेय पुराण 39.33
13. ऐत